श्री सिद्धेश्वर महादेव।

Sidheshwar Ji Maharaj Mandir, haridwarअंग्रेजी शासनकाल में जब रधुनाथ मंदिर में सपादलक्ष शालग्राम व मणिमय लिंग की स्थापना हो रही थी उसी समय काशी के प्रखर विद्वान गंगाधर जी अपने विद्यार्थियों के साथ देशदेशान्तर का पैदल भ्रमण व शास्त्रथों में दिग्विजय करते हुये रघुनाथ मन्दिर, जम्मू पहुंचे। जहाँ उन्हें ससम्मान अतिथ्य सत्कार पूर्वक ठहराने की समुचित व्यवस्था की गई।

प्रातःकाल जम्मू नरेश राजपुरोहित व अन्य सभा पण्डितों ने उन्हें भारतीय परम्परानुसार शास्त्रार्थ करने के लिए आमंत्रित किया। वहाँ महाराज गुलाब सिंह तत्कालीन जम्मू नरेश के सभापण्डितों, राजपुरोहितादिक पण्डितों को शास्त्रार्थ में पराजित कर मनावलम्बन करने पर विवश कर दिया। पण्डित जी की विद्वता से प्रसन्न महाराजा गुलाब सिंह जी ने आपसे श्रीमभागवत की कथा श्रवण कराने का अनुरोध किया जिसे पण्डित जी ने स्वीकार कर सप्ताहपारायण विधि से गुलाब सिंह जी की ज्ञानपिपासा को शान्त किया। कथा के उपरांत जब महाराजा ने दक्षिणा में हीरे जवाहरात स्वर्णादिक प्रस्तुत किया तो पण्डित गंगाधर जी ने उन्हें यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि यह ब्राह्मणों का आभूषण नही है। उन्होंने महाराजा से शंकरटीला मे कुछ दिन रहकर सारस्वत विद्वानो से शास्त्रार्थ करने की इच्छा प्रकट कर एक दिव्य शिवलिंग की मांग की जो दुर्लभ कोटि का हो। महाराजा ने विद्वानशिरोमणि के निवेदन को आदरपूर्वक पूर्ण करने का वचन दिया और अनुचरो को दुर्लभ कोटि के शिवलिंग के खोज नर्मदा में करने का आदेश दिया।

महाराजा के अनुचरों ने अनेकों चित्र-विचित्र् शिवलिंग महाराजा के सामने प्रस्तुत किये और उनमें से सर्वलक्षण सम्पन्न एक विशाल शिवलिंग जो शिव और शक्ति के प्रतीको से युक्त था उसका चयन पण्डित जी ने किया और उसे लाकर शंकराचार्य की तपस्थली शंकरटीला पर कुछ मास निवास किया और शिव के दिव्य नर्मदेश्वर लिंग का अर्चन करते रहे और शंकर टीलों से शंकराचार्य छडी के साथ अमरनाथ की यात्रा का शुभारंभ किया, दुर्गम मार्ग होने के कारण यह यात्रा उस काल में अत्यन्त कठिन थी। यात्रा उपरान्त महाराजा ने पण्डित गंगाधर की काशी की वापसी यात्रा  का प्रबन्ध किया और दिव्य नर्मदेश्वर को शिर पर रखकर विद्यार्थियों समेत पण्डित जी काशी वापस आये। काशी में पहुंचकर उनका स्वास्थ्य अत्यन्त गिर गया, उनको पक्षाघात हो गया और वे बहुत काल तक अस्वस्थ रहे जिस कारण शिवलिंग की कहीं अचल स्थापना नहीं हो पायी।

ईस्वी सन 1971 में गुरुदेव स्वामी भूमानन्द जी तीर्थ को शिवलिंग की स्थापना करने का स्वप्न आया और स्वामी जी ने एक शिवलिंग का चयन भी कर लिया पर स्थापना के एक दिन पहले स्वामीजी को पुनः स्वप्न आया कि काशी में शिव अपूजित हैं और पूजन की प्रतिक्षा कर रहें हैं पूज्य स्वामी जी ने अथक प्रयास कर काशी में पण्डित गंगाधर का पता लगाकर उनसे शिवलिंग को मांग लिया और उसे अथक प्रयासों से हरिद्वार लाये और सन 1971 में स्वामी करपात्रि (हरिहरानन्द जी सरस्वती), शंकराचार्य स्वामी कृष्णबोधाश्रम जी, माता आनन्दमयी, स्वामी निरंजनदेव तीर्थ आदि तत्कालीन दिव्य महात्माओं के सानिध्य में भूमानिकेतन आश्रम में स्थापित किया और सचल शिव के समान दिव्यमहापुरुष स्वामी करपात्र्ाी जी को अपना लाया हुआ शिवलिंग उपहार में भेंट कर दिया जिसे लाकर स्वामी करपत्राजी ने अत्यन्त प्रसन्न होकर रामकृपेश्वर रूप में, केदारघाट वाराणसी में स्थापित कर दिया। गुरुदेव भगवान स्वामी भूमानन्द और स्वामी करपत्राजी महाराज का यह स्नेह तत्कालीन साधुसमाज में आर्दश के रूप में देखा जाता था। आज भी वाराणसी में दोनों महात्माओं का आश्रम केदारघाट पर एक दूसरे के बगल मे स्थित है और निलों में भी परस्पर स्नेह का प्रतीक है।

श्री सिद्धेश्वर महादेव के स्थापना के उपरान्त भूमानिकेतन में एक विचित्र सुगन्धानुभूति का सतत आभास, सभी भक्तजनो को  महादेव के दिव्यलिंग के सानिध्य का बोध कराता रहता है आश्रम में आने वाले सभी जन श्री सिद्धेश्वर के दिव्यलिंग का पूजन अर्चन कर अपनी मनोकामनाओ की सिद्धि प्राप्त करते हैं।

यह शिवलिंग समाज को भारत की एकता और अखण्डता का बांध कराता है जो देश के मध्यभाग से चलकर देश के मुकुटभाग काश्मीर में पूजित हुआ और धर्म की राजधानी काशी में रहकर पुनः स्वर्ग के प्रवेशद्वार सप्तऋषियों की भूमि पर मां गंगा के निकट जनसमुदाय का मन वांछित द्रव्य देने वाला वांछाकल्पद्रुम का स्वरूप बन स्थित है।

स्वामीवर्य अनन्तश्री विभूषित अच्युतानन्द तीर्थ जी महाराज अनेको दिव्यमहाविभूतियों से पूजित इस शिवलिंग को अपने हृदय में विराजित गुरूदेव का प्रसाद मान कर नित्य दर्शन वन्दन करते हैं और किसी भी भक्त के दुखों से निर्वाण के लिये इस दिव्य आर्तत्रण शिवलिंग का पूजन व अभिषेक करने की बात कर उसी समय से गुरुदेव की परम्परा का अविच्छिन र्निवहन कर रहे है।

काशी के विद्वानो के आगमन पर तपोमूर्ति स्वामीजी अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर श्री सिद्धेश्वर के ही उपर ही अभिशेक करने का आदेश करतें हैं और सभी ब्रह्मिनो को अधिकाधिक दक्षिणा देकर काशी का मान रखतें हैं।

सिद्धेश्वर शिव के दिव्य सोन्दर्य का दर्शन कर अपने जीवन को धन्य करने की इच्छा हो तो भूमानिकेतन में आकर जीवन कृर्ताथ करें।।