kal-bhairavकाल भैरव जी का मंदिर

maa-rajrajeshwariमाता राजराजेश्वरी त्रिपुरसुन्दरी

parad-shivlingपारद शिवलिंग का मंदिर

sidheshwar-ji-maharaj श्री सिद्धेश्वर जी का मंदिर

श्री काल भैरव मंदिर

kal-bhairavसंसार में अहंकारियों के अहंकार दर्प को नष्ट करने वाले ईश्वर के अनेक अवतार है। जब-जब धर्म की हानि हुई है, तब-तब भगवान ने कोई न कोई रूप धर धर्म को पुनः बल प्रदान किया है। जैसे रावण का दर्पनाश करने हेतु श्री राम, कंस का हनन करने श्री कृष्ण, ब्रह्मा के अहंकार को नष्ट करने हेतु कालभैरव, दक्ष का घमण्ड चूर करने के लिए वीरभद्र आदि।

आगम ग्रन्थों में भैरव जी के अनेक वर्णन प्राप्त होते है।

असिता रूरूचण्डः क्रोध उन्मत्त संज्ञक।
कपालो भीषणश्चैव संहारश्चाष्टमः स्मृतः।।

कल्कि पुराण में भी भैरव का नाम आया है कि ये भगवान महारूद्र के प्रमुखगण हैै। ये उग्र संज्ञक देव कलिकाल में भी भक्तों के मनाकामनाओं को क्षिप्र पूर्ण कर देते है। स्कन्द पुराण में  कालभैरव की उत्पत्ति का वर्णन विशद रूप से किया है।

ब्रह्मा के अंहकार को नष्ट करने के लिए ईश्वर ने अपने भृकुटि से भीषण रव करने वाले भैरव की सृष्टि कर ब्रह्मा के पंचम मुख का छेदन करने का आदेश दिया साथ ही भैरव को ब्रह्महत्या से मुक्ती प्राप्त करने के लिए तीर्थाटन का भी आदेश किया। काशी में प्रवेशोपरान्त श्री भैरव की ब्रह्महत्या निवृत्ति हुई जिस स्थान पर ब्रह्महत्या ने भैरव को मुक्त किया उसका नाम कपालमोचन पडा।
भैरव जी के आज्ञा पालन से सदाशिव इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने भैरव जी को काशी का प्रमुख कोतवाल भी बना दिया। आज भी भैरव पूजन किये बिना काशी वासियों के कष्ट का समापन नहीं होता है।

कालभैरव की स्तुति करते हुए सब कहते है-

“काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे” ;कालभैरवाष्टकद्ध

दश महाविद्याओं मेें जो भी देवी के दस स्वरूप है उनके साथ भवानी के पति भैरव रूप में संसार को त्राण देने का कार्य निरन्तर कर रहे है। प्रातः स्मरणीय गुरुदेव स्वामी भूमानन्द जी के पूर्व शरीर के कुलदेव भैरव जी ही थे और जब महाराजश्री ने दण्ड धारण किया तो भैरव भी साक्षात स्वामी जी के सामने उग्र भैरव रूप में प्रकट हो गये और आशीष मांगने को कहा परन्तु स्वामी जी ने उग्र भैरव के रूप में आराधना को स्वीकार न करते हुए श्री बटुक भैरव स्वर्णाकर्षण भैरव के यांत्रिक रूप में आशीष देने की प्रार्थना की। स्वामी जी का मांगने लेने-देने के व्यवहार से उत्कट वैराग्य हो गया था अस्तु गुरुदेव भगवान ने ईश्वर को प्राप्ति करने में सहाय होने को कहा और पथ प्रदर्शक बनने का निवेदन किया। कलयुग मंे भैरव उपासना छिप्र प्रसादन होने के कारण शीघ्र फलदायी है। स्वामी श्री भूमानन्द तीर्थ जी के महाप्रयाण तक एक विचित्रानुभूति सभी सहचारी भक्तजनों को होती थी कि जैसे कोई और भी स्वामी जी के साथ चल रहा है।

स्वामी जी के गुरुवर्य उडिया बाबा ने एक भैरव उपसना की विधि भी स्वामी जी को बतलाई थी जिसमें दीपदान की एक विशिष्ट विधि का वर्णन किया था जो एक दिवसीय, त्रीदिवसीय और सप्त दिवसीय विधान है, जिसमें 27 पल की बत्ती सूत की बनाकर दीप प्रज्जवलित करने का नियम है, जिसको करने के बाद स्वामी जी ने कभी किसी भी उत्सव, प्रसंग या समष्टी भण्डारे में पूर्णता के अलावा अपूर्णता/अभाव को महसूस नही किया।

स्वामीश्री भैरवोपासक है, ये बात साधु समाज में भी दावानल के समान फैली हुई थी। स्वामीश्री ने हिमाचल में रिवारसल नामक जगह में तिब्बतीयों पर दिग्विजय प्राप्त किया था। आज भी आश्रम के मुख्य पूजाकक्ष में स्वामीश्री के भैरव पूजा से उत्पन्न तरंगों को सहज ही महसूस किया जा सकता है।

प्रातः स्मरणीय गुरुदेव श्री भूमानन्द जी शंकराचार्य अद्वैत मत के अनन्य उपासक होते हुए भी सभी देवों का पूजन करते थे स्वामी जी का कहना था कि हम यदि पूजन नहीं करेंगे तो समाज में भ्रान्ति फैलेगी कि ये पूजन नही करते और अद्वैतवादी तो सोऽहं और कोऽहं के द्वन्द से भी मुक्त नित्य जगत का साक्षी होता है। इसलिए समाज को सही दिशा मिले इसका प्रयास स्वामी जी अपने आचरण में सतत करते थे और इसीलिए शिवोपासना, भैरवोपासना, ब्रह्मणसत्कार आदि सभी वैदिक विधियों का आजीवन पालन किया और आश्रम के सभी सुधियों के करने का प्रेरक बने।

श्री श्री 1008 पुण्य श्लोक अनन्त स्वामी भूमानन्द जी के एक मात्र हृदयांश जो उनके ही पदचिन्हों पर चलकर स्वामी भूमानन्द जी के नाम को दिगन्तों में गुन्जयमान कर रहे है, वाद-विवाद से परे संसार का कल्याण ही जिनका लक्ष्य होकर राष्ट्र हित और मानव हित के राष्ट्रवादी विचारों से ओत-प्रोत पुण्य स्वामी श्री अच्युतानन्द तीर्थ जी महाराज चाहे कोई भी परिस्थिति हो गुरु आदेश का पालन किये बिना जल नही ग्रहण करते।

हम सबको ऐसे महाविभूतियों के चरणरज से जितना भी संभव हो रज को लेकर अपना जीवन संवर जाये ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए।

माता श्री राजराजेश्वरी त्रिपुरसुन्दरी मंदिर

maa-rajrajeshwariमाता राजराजेश्वरी त्रिपुरसुन्दरी परिचय।

ब्रह्मण्ड को भण्ड नाम के असुर के त्रास से मुक्ति देने के लिए महायागानलोत्पन्ना श्री माता राजराजेश्वरी ललिता परमेश्वरी का प्रादूर्भव हुआ ऐसी कथा ब्रह्मण्ड पुराण के उत्तर भाग के इक्तीसवें अध्याय में आयी है। ब्रह्मर्षी अगस्त्य जी के पूछने पर हयग्रवी भगवान कहते है –

“यथा चक्ररथं प्राप्य पूर्वोक्तैर्लक्षणैयुर्तम्।

महायागान्लोत्पनन्ना ललिता परमेश्वरी।।

कृत्वा वैवाहिकीं लीलां ब्रह्माद्यैः प्रार्थिता पुनः।

व्यजेष्ठ भण्डनामानमसुरं लोककण्टकम्।।

तदा देवा महेन्द्राद्याः सन्तोष बहु मेजिरे।।”

माता ललिता के विहार करने के लिए विश्वकर्मा ने अद्भुद प्रासाद की रचना की थी। श्रीपुर नवकूट परिवृत है जहाँ बिन्दुमण्डल मध्यवासिनी का मुख्य स्थान है। भगवती को पचप्रेतासनासीना भी कहा गया है। जो भगवती के व्यापकता व अक्षुण्ण सत्ता का भी बोधक है। महाराज्ञी विष्णु, ब्रह्मा एवं शिव के भी न रहने पर स्थित होकर अपने प्रेयस कामेश्वर की आराधना व विहार करती है। ऐसी भागवती को अनेको देवों ने पूजा, ईष्ट बनाया और अलभ्य पदार्थों की, पदों की प्राप्ति की जैसे-विष्णु, चन्द्र, कुबेर, मनु, लोपामुद्रा, अगस्त्य, नन्दिकेश्वर, इन्द्र, सूर्य, शंकर एवं दुर्वासा आदि।

अन्य भी अनेकों उपसकों ने इशित्वादि अष्टसिद्धियों को प्राप्त करने के लिए मोक्ष, ज्ञान, धन आदिकों की प्राप्ति के लिए कामदुधा त्रिपुरसुन्दरी की उपासना की है।

माँ ललिता को ही लम्बोदरप्रसू भी कहा गया है जिसका भाष्य करते हुए शंकराचार्य भगवान ने कहा है- “लम्बोदरस्य महागणेशस्य प्रसूः जनयित्री मातेत्यर्थः, लम्बोदरं प्रसूत इति वा”, विघ्नहर्ता की जननी यही जगत्जननी है।।

ऐसी माता की उपासना पूज्य यतिवर्य कल्पशास्त्र विशारद स्वामी श्री भूमानन्द तीर्थ जी महाराज भी नित्य किया करते थे और माता की उपासना हेतु अन्यान्य पिपासुओं को भी प्रेरित किया करते थे। स्वामी जी ने अपने दण्ड में ही माँ ललिता का न्यास कर रखा था माँ ललिताम्बा के स्तोत्रों को पाठ करते-करते स्वामी जी विह्वल होकर अश्रुपूरित गदगद वक्त्र हो जाते थे। स्वामी जी के ही मुखारविन्दों ने अपने शिष्यों को सर्वदा “हरिणेक्षणा“ को उपास्य बनाने को कहा। स्वामी जी कहते थे “सर्वत्र सर्वदा सर्वदृष्टीति हरिणेक्षणा” स्वामीश्री भूमानन्द तीर्थ जी ने अपने सर्वाधिक वैराग्य युक्त शिष्य स्वामीश्री अच्युतानन्द तीर्थ जी को अपने करकमलों से पूजित प्रतिष्ठित श्री शिवशक्ति के परमरूप को आराध्या बनाने का आदेश दिया, जिसका आज भी वे पालन कर रहे है।

आश्रम में अनेकों भक्तगणों में से एक श्री सुभाष गोयनका जी, हिसार वाले के पूज्य दादा जी स्व0 श्री जगन्नाथ प्रसाद गोयनका जी, मठ में ही रहते थे। एक बार उन्होने अपने कष्टों के निवारण के लिए प्रार्थना की, तो गुरुदेव भगवान ने उन्हे माँ राजराजेश्वरी की मूर्ति पूजा का आदेश दिया, जिसे मानकर सन्-1985 में उन्होंने भूमा निकेतन, हरिद्वार में माँ भगवती के पंचप्रेतासनासीना रुप की प्रतिष्ठा करवाने का प्रण किया और अनेको सहस्त्र मुद्रायें खर्च कर इस कार्य को सम्पादित भी किया। जगन्नाथ प्रसाद गोयनका को सन् 1981 से पहले कोई नही जानता था। व्यापार शून्य के बराबर ही था। सन् 1986 के अन्त में माता की मूर्ति स्थापना के बाद इनको रूस में चावल सप्लाई का टेन्डर मिला, जिसे करने के बाद गुरुदेव और माता ललिता के कृपा प्रसाद से ये परिवार आज विश्वविश्रुत है। जी.टी.वी. और एक्सल वल्र्ड जैसी इनकी संस्थायें करोड़ो का मुनाफा कर रही है।

वर्तमान में भूमा निकेतन की मुख्याराध्या पराम्बा के प्रीत्यर्थ आश्रम में त्रिकाल त्रिशती का पाठ व हवन, शुद्ध वैदिक रीति से नित्य होता है। प्रधान अर्चक दिव्य भोगों का नैवेद्य पूर्ण शुद्धता से नित्य महाराजश्री भूमानन्द जी की आज्ञा से माँ भगवती को अर्पित करते है। भक्तजनों की मान्यता है कि आश्रम की सिद्धीदात्री माँ राजराजेश्वरी में ही गुरुदेव स्वामी श्री भूमानन्द जी का वास है और माँ का पूजन करने से नित्य गुरुदेव ही पूजित होकर हमें भवसागर से त्राण देने की महती कृपा कर रहें है।

कुछ पुराने आश्रम वासियों ने बताया कि स्वामी श्री भूमानन्द जी के महानिर्वाण पर एक वर्ष तक आश्रम की सिद्धिदात्री की माला कुंभलाई रहती थी, ऐसा उपास्य और उपासक का आत्यन्तिक सम्बन्ध विरल ही है।

आश्रम में आकर माता जी के दर्शन का लाभ उठायें।

अद्भुत मन्दिर, हरिपुर कलां में 5000 व्यक्तियों के बैठने की व्यवस्था के लिये एक सुसज्जित सभागार उपलब्ध है। इस हाॅल को कीर्तन, श्रीमद् भागवत कथाओं, धार्मिक आयोजन एवं सभाओं के लिये उपयोग किया जा सकता है। इसमें कोई शुल्क निर्धारित नही है। इसकी व्यवस्था स्वेच्छा से दिये गये धन से संचालित होती है। यहाँ पर होने वाले आयोजनों के लिये आवश्यकतानुसार सात्विक भोजन की व्यवस्था है।
सभागार के साथ आगन्तुको के ठहरने की भी समुचित व्यवस्था है, जिसे भी स्वेच्छा से दी गई धनराशि से चलाया जाता है, साधना के इच्छुक, साधना व ध्यान के लिये लम्बे समय तक प्रवास कर सकते है। यह व्यवस्था भी स्वेच्छा से दी गई धनराशि से संचालित है।
गम्भीर बीमारियों के लिये संस्था के पीठाधीश्वर स्वामी जी स्वयं परामर्श देकर आयुर्वेद एवं प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति के समायोजन का सहयोग प्रदान करते है।
जन साधारण की प्रत्येक समस्या का योग, साधना, आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा एवं ज्योतिष के माध्यम से समाधान का प्रयास किया जाता है।
इस संस्थान में आयुर्वेद, अध्यात्म, तन्त्र-मन्त्र आदि की दुर्लभ पुस्तकें उपलब्ध है। पूर्व सूचना के बाद उपरोक्त दुर्लभ पुस्तकें उसी स्थान पर अवलोकनार्थ उपलब्ध हो सकेगी।

पारद शिवलिंग

parad-shivlingशिव का नाम लेते ही आस्तिक के मन में एक शक्तिमय स्वरूप का विम्ब परिलक्षित होता है। शिव की महिमा का गान तो अनन्त है। इसका न आदि ज्ञात है न अन्त ज्ञात हो सकता है। बस ये एक दिव्य फल है, जिसने इसका स्वाद पाया वो संसार सागर से तर गया यह नाम भौतिक आध्यात्मिकादि समस्त तापों से झटित त्राण देने वाला है।

महिम्न स्रोत में पुष्प दन्त महिमा गाते हुए थक कर कहते है –

असितगिरि समं स्यात कन्जलं सिन्धुपात्रे, सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुव।

लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं, तदपि तवगुणानाम् ईश पारं न याति।।

यदि सुमेरु पहाड सा कालिख का भण्डार हो और उसको समुद्र में डालकर स्याही बनाया जाये और देवताओं के सर्वश्रेष्ठ वृक्ष कल्पवृक्ष की शाख को लेखनी बनाकर पूरी पृथ्वी को कागज बनाया जाये और सरस्वती हमेशा इन उपकरणों से शिव के गुणों की महिमा को लिखती रहे तब भी हे शिव आपके गुणों का अन्त नहीं हो पायेगा। आपकी पूर्ण महिमा को नही जाना जा सकेगा।

ऐसे शिव को जब हम नही समझ पाते तो पूर्ण ज्ञान स्वरूप गुरु में उनको पूज्य भाव से सहòार पर विराजित कर कहते है।

यो गुरुः स शिवः प्रोक्तो यः शिवः स गुरुः स्मृतः

उभयोन्तरं नास्ति गुरोरपि शिवस्य च।

जो गुरु है वही शिव है, जो शिव है वही गुरु है। इन दोनों में कोई अन्तर नही। शिव और गुरु एक ही है। ऐसे महामहिमाशाली शिव के पूजन पर अनेक ग्रन्थ, पद्यतियां एवं शास्त्र रचित हुए, अनेकों देवों ने शिव को अनेकों रुपों में उपास्य बनाया और उपासकत्व गौरवलब्ध जगतप्रतिष्ठ हुए। श्री विद्यार्णव में शिव के 16 प्रकार के लिंगो का वर्णन आया है, जिसमें तांबा, शीशा, लोहा, सोना, चांदी, रत्नमय आदि का वर्णन है। उनमें से ही एक सर्वश्रेष्ठ लिंग है रसलिंग। रस के शास्त्रों में अनेको नाम है। सामान्य भाषा में इसको पारद लिंग भी कहते है।

सामान्य स्थूल बुधिसूक्ष्म निरजंन निराकार शिव तत्व को ग्रहण करने में सक्षम नही होती अतः प्रत्येक सम्प्रदाय में प्रथमावस्था में साधक प्रकृति सम्ब( लिंग का अर्चन करते है। इसी को ध्यान कर तपोमूत वीतरागश्रेष्ठ ब्रह्मलीन स्वामी लक्ष्येश्वराश्रम जी महाराज ने सामान्य जन के स्थूल चित्तवृत्ति का ध्यान कर शास्त्रावगाहन कर इस लिंग निर्माण विधि को पुनः जीवित किया और शास्त्रोक्त वचन –

“लिंग कोटी सहस्त्रास्य यत्फलं सम्यगर्चनात्।
तत्फलात्कोटीगुणितं रसलिंगार्चनाद् भवेद्”
”अनेकों प्रकार के हजारो लिंगो का विधिपूर्वक पूजन करने से जो फल उत्पन्न होता है उस फल के करोड़ो गुना फल पारद शिवलिंग के पूजन से प्राप्त होता है“ को सामान्य जन के लिए सुलभ किया।

स्वामी जी ने अपने परामोपास्य के व्यक्त गुढतत्व के साक्षात्कारोपरान्त भी सर्वजन सुखाय भूभार रुप हम अज्ञानी जनों के लिए व्यक्त रूप में शोधन कर ईशावस्यमिदं सर्वं की सूक्ति को सि( कर प्रत्यक्ष में हमारे समक्ष रख दिया। यह विधि अत्यन्त गूढ़ और श्रमसाध्य है जिसका अनेकों आधुनिक रसायनविद केमिस्टद्ध और शोधकर्ता खोज कर रहे है। फिर भी द्रव को बिना किसी दाब या ताप के धनीभूत ठोस अवस्था में परिव£तत नही कर पा रहे है। पारा ही वह धातु है जो द्रव अवस्था में प्राप्त होता है और तापमान के घटने-बढ़ने का सर्वोंत्तम संकेतक हैै। आज भी विज्ञान तापमान के आंकडे़ जुटाने के लिए इसी रसराज को थर्मामीटर आदि उपकरणों में डालकर प्रयोग कर रहा है। परन्तु ब्रह्मलीन स्वामी लक्ष्येश्वराश्रम जी महाराज ने इस धनीभूत कर आधुनिक विज्ञान को उसके लघुता का प्रमाण दिया और हमारे वैदिक विज्ञान की विजय पताका को सर्वोंच्च शिखर पर स्थापित किया है।

भूमा निकेतन, हरिद्वार में माता राजराजेश्वरी के सिहांसन के सम्मुख दिव्यपीठ पर विराजमान पारद शिवलिंग कामेश्वर और कामेश्वरी अथवा प्रकृति और पुरुष के अनुपम संयोग को दर्शाते हुए स्थित है।

पराप्रासाद दीक्षा च, पारदेश्वर पूजनम्।
महिम्नः स्तुतिपाठश्च, नाल्पस्य तपसः फलम्।।
पराप्रासादमन्त्रेण, रसलिंग समर्चयेत्।
षणमासाभयन्तरेणैव, सर्वशिवरोभवेत्।। – श्री विद्यार्णव तन्त्रद्ध

इस पारदेश्वर शिव की पूजा से पराप्रासाददीक्षा की प्राप्ति होती है। उनकी महिमा की स्तुति पाठ से अल्पतपस्या का फल नहीं मिलता प्रत्युत् जो फल कठिन तप से प्राप्त होता है वह फल मिलता है इसलिये साधक को उपर्युक्त पराप्रासाददीक्षा मन्त्र से पारदलिंग की अर्चन-पूजन करना चाहिये। इस पूजन से छः मास के अन्दर ही सभी प्रकार की सिद्धियों के अधिपति पद की प्राप्ति हो जाती है।

जो शिवलिंग करोड़ों गुना अधिक फल देने वाला है ऐसे शिवलिंग का दर्शन पूजन कर हमने यदि अपना जीवन कृतार्थ नहीं किया तो हमने हाथ आये अमृत को भूमि पर बिखेरने जैसा भीषण कृत्य कर अपने आत्मबोध का अवसर गवां दिया।
भगवान भोलेनाथ आप सबका कल्याण करेें।

।। ऊँ नमः शिवायः ।।

श्री सिद्धेश्वर जी महादेव

sidheshwar-ji-maharajअंग्रेजी शासनकाल में जब रधुनाथ मंदिर में सपादलक्ष शालग्राम व मणिमय लिंग की स्थापना हो रही थी उसी समय काशी के प्रखर विद्वान गंगाधर जी अपने विद्यार्थियों के साथ देशदेशान्तर का पैदल भ्रमण व शास्त्रथों में दिग्विजय करते हुये रघुनाथ मन्दिर, जम्मू पहुंचे। जहाँ उन्हें ससम्मान अतिथ्य सत्कार पूर्वक ठहराने की समुचित व्यवस्था की गई।

प्रातःकाल जम्मू नरेश राजपुरोहित व अन्य सभा पण्डितों ने उन्हें भारतीय परम्परानुसार शास्त्रार्थ करने के लिए आमंत्रित किया। वहाँ महाराज गुलाब सिंह तत्कालीन जम्मू नरेश के सभापण्डितों, राजपुरोहितादिक पण्डितों को शास्त्रार्थ में पराजित कर मनावलम्बन करने पर विवश कर दिया। पण्डित जी की विद्वता से प्रसन्न महाराजा गुलाब सिंह जी ने आपसे श्रीमभागवत की कथा श्रवण कराने का अनुरोध किया जिसे पण्डित जी ने स्वीकार कर सप्ताहपारायण विधि से गुलाब सिंह जी की ज्ञानपिपासा को शान्त किया। कथा के उपरांत जब महाराजा ने दक्षिणा में हीरे जवाहरात स्वर्णादिक प्रस्तुत किया तो पण्डित गंगाधर जी ने उन्हें यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि यह ब्राह्मणों का आभूषण नही है। उन्होंने महाराजा से शंकरटीला मे कुछ दिन रहकर सारस्वत विद्वानो से शास्त्रार्थ करने की इच्छा प्रकट कर एक दिव्य शिवलिंग की मांग की जो दुर्लभ कोटि का हो। महाराजा ने विद्वानशिरोमणि के निवेदन को आदरपूर्वक पूर्ण करने का वचन दिया और अनुचरो को दुर्लभ कोटि के शिवलिंग के खोज नर्मदा में करने का आदेश दिया।

महाराजा के अनुचरों ने अनेकों चित्र-विचित्र् शिवलिंग महाराजा के सामने प्रस्तुत किये और उनमें से सर्वलक्षण सम्पन्न एक विशाल शिवलिंग जो शिव और शक्ति के प्रतीको से युक्त था उसका चयन पण्डित जी ने किया और उसे लाकर शंकराचार्य की तपस्थली शंकरटीला पर कुछ मास निवास किया और शिव के दिव्य नर्मदेश्वर लिंग का अर्चन करते रहे और शंकर टीलों से शंकराचार्य छडी के साथ अमरनाथ की यात्रा का शुभारंभ किया, दुर्गम मार्ग होने के कारण यह यात्रा उस काल में अत्यन्त कठिन थी। यात्रा उपरान्त महाराजा ने पण्डित गंगाधर की काशी की वापसी यात्रा का प्रबन्ध किया और दिव्य नर्मदेश्वर को शिर पर रखकर विद्यार्थियों समेत पण्डित जी काशी वापस आये। काशी में पहुंचकर उनका स्वास्थ्य अत्यन्त गिर गया, उनको पक्षाघात हो गया और वे बहुत काल तक अस्वस्थ रहे जिस कारण शिवलिंग की कहीं अचल स्थापना नहीं हो पायी।

ईस्वी सन 1971 में गुरुदेव स्वामी भूमानन्द जी तीर्थ को शिवलिंग की स्थापना करने का स्वप्न आया और स्वामी जी ने एक शिवलिंग का चयन भी कर लिया पर स्थापना के एक दिन पहले स्वामीजी को पुनः स्वप्न आया कि काशी में शिव अपूजित हैं और पूजन की प्रतिक्षा कर रहें हैं पूज्य स्वामी जी ने अथक प्रयास कर काशी में पण्डित गंगाधर का पता लगाकर उनसे शिवलिंग को मांग लिया और उसे अथक प्रयासों से हरिद्वार लाये और सन 1971 में स्वामी करपात्रि (हरिहरानन्द जी सरस्वती), शंकराचार्य स्वामी कृष्णबोधाश्रम जी, माता आनन्दमयी, स्वामी निरंजनदेव तीर्थ आदि तत्कालीन दिव्य महात्माओं के सानिध्य में भूमानिकेतन आश्रम में स्थापित किया और सचल शिव के समान दिव्यमहापुरुष स्वामी करपात्री जी को अपना लाया हुआ शिवलिंग उपहार में भेंट कर दिया जिसे लाकर स्वामी करपत्राजी ने अत्यन्त प्रसन्न होकर रामकृपेश्वर रूप में, केदारघाट वाराणसी में स्थापित कर दिया। गुरुदेव भगवान स्वामी भूमानन्द और स्वामी करपत्राजी महाराज का यह स्नेह तत्कालीन साधुसमाज में आर्दश के रूप में देखा जाता था। आज भी वाराणसी में दोनों महात्माओं का आश्रम केदारघाट पर एक दूसरे के बगल मे स्थित है और निलों में भी परस्पर स्नेह का प्रतीक है।

श्री सिद्धेश्वर महादेव के स्थापना के उपरान्त भूमानिकेतन में एक विचित्र सुगन्धानुभूति का सतत आभास, सभी भक्तजनो को महादेव के दिव्यलिंग के सानिध्य का बोध कराता रहता है आश्रम में आने वाले सभी जन श्री सिद्धेश्वर के दिव्यलिंग का पूजन अर्चन कर अपनी मनोकामनाओ की सिद्धि प्राप्त करते हैं।

यह शिवलिंग समाज को भारत की एकता और अखण्डता का बांध कराता है जो देश के मध्यभाग से चलकर देश के मुकुटभाग काश्मीर में पूजित हुआ और धर्म की राजधानी काशी में रहकर पुनः स्वर्ग के प्रवेशद्वार सप्तऋषियों की भूमि पर मां गंगा के निकट जनसमुदाय का मन वांछित द्रव्य देने वाला वांछाकल्पद्रुम का स्वरूप बन स्थित है।

स्वामीवर्य अनन्तश्री विभूषित अच्युतानन्द तीर्थ जी महाराज अनेको दिव्यमहाविभूतियों से पूजित इस शिवलिंग को अपने हृदय में विराजित गुरूदेव का प्रसाद मान कर नित्य दर्शन वन्दन करते हैं और किसी भी भक्त के दुखों से निर्वाण के लिये इस दिव्य आर्तत्रण शिवलिंग का पूजन व अभिषेक करने की बात कर उसी समय से गुरुदेव की परम्परा का अविच्छिन र्निवहन कर रहे है।

काशी के विद्वानो के आगमन पर तपोमूर्ति स्वामीजी अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर श्री सिद्धेश्वर के ही उपर ही अभिशेक करने का आदेश करतें हैं और सभी ब्रह्मिनो को अधिकाधिक दक्षिणा देकर काशी का मान रखतें हैं।

सिद्धेश्वर शिव के दिव्य सोन्दर्य का दर्शन कर अपने जीवन को धन्य करने की इच्छा हो तो भूमानिकेतन में आकर जीवन कृर्ताथ करें।।