आदि संस्थापक ब्रह्मलीन स्वामी श्री भूमानन्द तीर्थ जी महाराज
दण्डी स्वामी श्री भूमानन्द तीर्थ जी महाराज का जीवनवृत्त
महाराजश्री जी का प्राकट्य वि0सं0-1964 को भाद्रपद शुक्ल पक्ष दशमी तिथि को एक अति धनाढ्य्य एवं सुशिक्षित परिवार में चन्दौसी (मुरादाबाद) उत्तर प्रदेश में हुआ। इस परिवार को सिंह एवं नवाब की उपाधि मिली हुई थी तथा दरबार लगता था। भौतिक सुख-सुविधाएं प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी। स्वामी जी की संस्कृत की शिक्षा अपने ही शहर में “श्री रघुनाथ आश्रम“ में हुई जहाँ पर विद्यार्थी ब्रह्मचारी के वेश में विद्या अध्ययन करते थे।
इनके बचपन का नाम राम किशोर था। परिवार में तथा ननिहाल में भी अकेले पुत्र थे। आपके सुकोमल, सुन्दर, आर्कषण युक्त शरीर सौष्ठव को देखकर लोग आपको बटुक नाम से सम्बोधित करते थे। भैरव जी आपके कुल देवता थे। संस्कृत की शिक्षा के साथ ही हाईस्कूल की शिक्षा भी अपने ही नगर से उत्तीर्ण की। आपका विद्या अध्ययन भारतीय परम्परा के अनुसार हुआ, जिसमें श्रद्धा, ब्रह्मचर्य सादा जीवन एवं उच्च विचार की शिक्षा दी जाती है। महाराजश्री सुसंस्कृत एवं मेधावी थे। आदि जगद्गुरु शंकराचार्य जी की तरह ही जब महाराजश्री का जन्म हुआ तो उस समय वैदिक धर्म पर चार्तुदिक प्रहार, नास्तिकों का प्राबल्य तथा धर्म का ह्रास हो रहा था। आध्यात्म ज्ञान, ध्यान और कर्म पलायन कर रहे थे। समाज में चारो ओर भ्रान्तियाँ, कुरीतियाँ एवं अन्धविश्वास फैला हुआ था। किशोरावस्था में पहुँचते-पहुँचते महाराजश्री को इसका पूरा आभास हो गया था और धीरे-2 उनका मन भौतिक संसार से विरक्त होकर वैराग्य की ओर अग्रसर हो रहा था अतः उपरोक्त कुरीतिरयों को दूर करने के लिए घर छोड़कर चल पड़े।
निम्न श्लोक महाराजश्री के जीवन पर पूर्णतया चरितार्थ होता है।
यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
श्रीमद् भगवद् गीता में भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है कि जब जब भारत में धर्म कमजोर होता है तब-तब मैं अवतरित होकर धर्म रक्षण करता हूँ।
उस समय के प्रसिद्ध महात्मा अवधूत श्री स्वामी पूर्णानन्द तीर्थ जी महाराज (उडिया बाबा) चन्दौसी में आया करते थे। बालक रामकिशोर जी पूर्व जन्म के संस्कार एवं सत्संग उपदेश से उत्पन्न वैराग्य के कारण आप किसी को बिना बताये उडिया बाबा के साथ चले गये। उस समय उनकी आयु लगभग 20 वर्ष थी। उडिया बाबा अटक से कटक तथा हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक पूरे भारत में, धर्म जगत में विख्यात थे। बालक रामकिशोर ने उडिया बाबा से नैष्ठिक ब्रह्मचारी की दीक्षा ले ली और उनका नाम अखण्डानन्द ब्रह्मचारी हो गया। इसी ब्रह्मचारी ने ज्ञान, वैराग्य तथा उपासना के यज्ञ में अपने को आहूत कर दिव्य ओज व ज्ञान प्राप्त किया, जिससे आज हम ओत-प्रोत हो रहे है।
महाराजश्री के लिए गुरु आज्ञा का कितना महत्व है इसको निम्नलिखित दृष्टान्त से समझा जा सकता है –
एक बार ब्रह्मचारी अखण्डानन्द जी नरोरा (बुलन्दशहर) में उडिया बाबा के साथ प्रवास कर रहे थे, कि उडिया बाबा को सूचना मिली कि कर्णवास में, जो नरोरा से लगभग 20 किलोमीटर दूरी पर है, वहाँ पर शास्त्रानन्द जी को पेचिस की शिकायत हो गयी है। उडिया बाबा ने ब्रह्मचारी जी को आदेश दिया कि बेल लेकर शास्त्रानन्द जी के पास जाओ। भीषण गर्मी के मौसम में दोपहर के समय नंगे पांव चलकर ब्रह्मचारी जी कर्णवास में शास्त्रानन्द जी के पास पहुँचे और उनको कहा कि उडिया बाबा ने आपके लिए बेल भेजा है- इसे खा लीजिए! शास्त्रानन्द जी ने फल नही खाया और कहा कि हमारी इच्छा नही है, हम नही खाते। ब्रह्मचारी पुनः उडिया बाबा के पास वापस पहुँचें और कहा कि उन्होेंने बेल (फल) नही खाया। उडिया बाबा ने कहा कि कागज लाओ और उस पर लिखो कि यह हमारी आज्ञा है। फल खाओगे, तो ठीक हो जाओगे। यह फल उनको खिलाकर ही वापस आना। ब्रह्मचारी जी फिर बेल (फल) लेकर कर्णवास पहुँचे तथा शास्त्रानन्द जी को वह पत्र दिया। पत्र पढ़कर बाबा ने कहा तुम ही अपने हाथों से खिलाओ और गले लगा लिया। बाबा ने कहा कि तुम गुरु शिष्य की परम्परा के अनुपम उदाहरण हो।
ब्रह्मचारी अखण्डानन्द जी की गौमुख से गंगा सागर तक साधनास्थली थी। एक बार गंगा किनारे भिक्षावृति करते-करते गंगा तट पर कानपुर के पास असनी ग्राम के एक आश्रम में पहुँचे, जहाँ पर अनंग बौध एवं शंकर आश्रम नाम के दो महात्मा रहते थे। ब्रह्मचारी जी ने वहाँ रहकर उनका मार्गदर्शन एवं सान्ध्यि प्राप्त किया। गंगा जी वहाँ से 5-6 किलोमीटर की दूरी पर थी। महात्मा शंकर आश्रम जी ने ब्रह्मचारी अखण्डानन्द जी से कहा कि गंगा जी से शीतल जल लाकर पिलाओ। ब्रह्मचारी जी करवा लेकर तुरन्त नंगे पांव रेत पर चलकर जल भरके ले आये। महात्मा जी ने करवा लेकर कुल्ला करके रख दिया। ब्रह्मचारी जी इस बात को देखकर बिल्कुल भी खिन्न नही हुए कि वहाँ पर एक पानी से भरा घड़ा पहले से ही रखा हुआ था। वह ब्रह्मचारी जी की केवल परीक्षा लेना चाहते थे।
स्वामी जी ने चित्रकुट आश्रम में 44 दिन तक लगातार केवल एक मुठ्ठी चना खाकर बूढे हनुमान जी की साधना की और साधना से प्रसन्न होकर बूढे हनुमान जी ने दीवार फाड़कर महाराजश्री को साक्षात दर्शन दिये, यह दीवार आज भी फटी हुई है।
पूरा उत्तरी भारत, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल एवं उत्तर प्रदेश उनकी कर्मस्थली रही है। जहाँ पर उन्होंने अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त की है जिसका उपयोग उन्होंने जनकल्याण भक्तों, साधू-सन्तों, सेवको आदि के कल्याण के लिए किया। ब्रह्मचारी अखण्डानन्द जी ने सभी वेदों, पुराणों और शास्त्रों का अध्ययन किया। आप नियमित शास्त्रार्थ में विद्वानों की सभाओं में भाग लेते थे व आर्युवेद के परम ज्ञाता थे, हर प्रकार की बिमारी की औषधीयाँ उनको कन्ठस्थ थी और जो भी उनके पास जाता वो अपना भौतिक शरीरिक एवं आध्यात्मिक कल्याण के बाद ही लौटता।
अनेक साधना मार्गों के अनुसरण, अनुधावन और अनुभव के पश्चात् आपने आदि शंकराचार्य के अद्वैतमत को अन्तिम रूप में चुना क्योंकि शंकरमत मे वैदिक धर्म ही मूलाधार है पर उसमें तन्त्र, हठयोग आदि का भी समावेश है। अनेको वर्ष तपस्या के अनन्तर स्वामी श्री ओमकारानन्द तीर्थ जी महाराज से आटा गाॅव, जिला-सोनीपत वि0सं0-1988 में ब्रह्मचारी अखण्डानन्द जी ने विधिवत् संन्यास की दीक्षा ले ली। दीक्षा ग्रहण के पश्चात् आपका नामकरण हुआ “दण्डी स्वामी भूमानन्द तीर्थ जी महाराज“ और आप इसी नाम से जगत मे विख्यात हुए।
महाराजश्री जी ने जहाँ-जहाँ पर अपना प्रवास एवं साधना की वहाँ-2 पर भक्तों एवं सेवकों ने संस्थायें बना दी। जिनका विवरण वेबसाइट पर दिया गया है।
सभी संस्थाओं पर धार्मिक उत्सव, अनुष्ठान अभिषेक, पूजा, साधना एवं ठहरने की उचित व्यवस्था है। वहाँ पर भजन, कीर्तन, सत्संग, तथा श्रीमद् भागवत कथा इत्यादि निरन्तर होती रहती है। उपरोक्त के सन्दर्भ में संस्था से सम्पर्क कर पूरी जानकारी प्राप्त कर सकते है। जिज्ञासुओं को संस्था पूरा सहयोग करेगी।
महाराजश्री अध्यात्म, दर्शन, प्राद्योगिकी, आर्युवेद के ज्ञाता होने के साथ ही बडे़ क्रान्तिकारी भी थे। आपने स्वतन्त्रता संग्राम एवं गौ रक्षा आन्दोलन में बढ़-चढ कर भाग लिया। स्वामी करपात्री जी से मिलने लाहौर की जेल तक गये और लाहौर में वहाँ के हिन्दूओं को गौ रक्षा आन्दोलन के लिए प्रेरित कर इस आन्दोलन को सफल बनाया।
महाराज जी संन्यास से लेकर निर्वाण तक प्रतिदिन चमत्कार करते रहे। चमत्कार करने के पश्चात् किसी को बताते नही थे और न ही जिनके लिए चमत्कार किया उनको दूसरों को बताने की आज्ञा थी। स्वामी जी मितभाषी थे व प्रचार-प्रसार में विश्वास नही रखते थे। उनके चमत्कारों का पूर्ण विवरण देना सम्भव नही है, इनमें से कुछ चमत्कार निम्नवत् है-
चमत्कार नम्बर-1
जनपद शामली में एक थानाभवन नामक कस्बा है। संवत् 2001 में महाराजश्री के शिष्य के द्वारा सहस्रचण्डी यज्ञ का संकल्प लिया गया था उस यज्ञ मंे ज्योर्ति पीठ के शंकराचार्य जगद्गुरु स्वामी श्री कृष्णबोधाश्रम जी महाराज और धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज भी पधारे हुए थे। यज्ञकाल के मध्य ही एक समय झस्सू वाले तालाब में युगपत हजारों विचित्र सर्प निकल आये। उस सरोवर मंे एक साथ उतने सर्पों को देखकर पूरे ग्रामवासियों में त्राहि-त्राहि मच गयी। यज्ञकर्ता भी समझ गये कि दुर्दैव से यज्ञ में असमाधेय विध्न उपस्थित हो गया है। जनता ने शीघ्र ही महाराजश्री के पास जाकर निवेदन किया कि महाराजश्री सरोवर मंे युगपत् प्रकट हुआ है सहस्त्राधिक सर्पों का झुण्ड पूरे कस्बे को डस लेगा, आप जल्दी कोई रक्षा का उपाय करंे। महाराजश्री ने ग्रामीणों की बात सुनकर झटिति कमण्डलु लिए और सरोवर के पास जाकर सर्पों को देखे। तुरन्त उन्होंने आदेश दिया कि सभी अपने-अपने घर जाकर दूध ले आओ। यथाशीघ्र ग्रामीण बाल्टी, लोटा और घट आदि में पर्याप्त दूध ले आये। महाराजश्री ने सारा दूध सरोवर में डलवा दिया और हाथ जोड़कर कहा- आप लोग अपना-अपना भाग लेकर यथा-स्थान चले जायें। एक घण्टे की अवधि दी जाती है। इस अवधि के बीच यदि कोई नहीं गया तो उसे मैं भस्म कर दूँगा। उस बीच बहुत सारे सर्प अपना-अपना भाग लेकर चले गये, कुछ सर्प नहीं गये। ग्रामीणों ने महाराजश्री से जाकर कहा कि महाराजश्री बहुत सारे सर्प चले गये है, कुछ सर्प शेष है। उनकी बात सुनकर महाराजश्री ने शब्दों पर जोर देकर कहा- अच्छा! वे आवेश में उठे, कमण्डलु हाथ में लिये और वहाँ जाकर जल हाथ में लेकर उच्च स्वर में बोले- जाते हो कि भस्म करुँ! इतना कहते ही जो कुछ भी बचे थे वे सारे के सारे अलक्षित हो गये। देखते-देखते वहाँ महाराजश्री की जय-जयकार होने लगी और यज्ञ का बलवत्तर विध्न दूर हुआ। जब कोई धार्मिक कृत्य में विध्न आता है तो आत्माराम महापुरुषों का ऐसा लोकोत्तर सामथ्र्य जनसामान्य के सामने आ ही जाता है।
मुरथल के यज्ञ में चमत्कार नम्बर-2
हरियाणा प्रान्त सोनीपत जनपद के अन्तर्गत मुरथल में सम्वत्-2002 में परमपूज्यपाद महाराजश्री ने महारुद्र यज्ञ का आह्वान किया बिट्रिश प्रशासन में उस समय एक किलो खांड और एक किलो घी से अधिक रखने पर पूर्ण पाबन्दी थी। उससे अधिक ये वस्तुयें कोई भी रख नहीं सकता था। अग्रेजों के इस काले कानून को तोड़ने के लिए और जनमानस में राष्ट्रीय चेतना की ज्वाला प्रदीप्त करने के लिए ही वस्तुतः महाराजश्री ने जानबूझ कर यज्ञ का संकल्प ले लिया था। अनुचरों द्वारा यज्ञ की पूर्णाहुति और अखण्ड भण्डारे का निमन्त्रण 50-60 ग्रामों में भिजवा दिया गया। खांड और घी की पाबन्दी को देखते हुए कातर ग्रामवासियों ने तथा आस-पास के सम्पन्न व्यक्तियों ने भी यज्ञ का समवते स्वर में विरोध किया। हरियाणा में महात्मा को मोड़ा कहते है। उन सभी व्यक्तियों ने महाराजश्री के पास आकर कहना प्रारम्भ किया कि ए मोड़े! तुम हमें और हमारे बच्चों को जेल कराओगे! उनकी तीव्र विरूद्ध बातों को सुनने के बाद भी महाराज श्री स्थाणु की तरह अचल रहे। निश्चल निष्पन्द हृदय की तरह परम शान्त महाराज श्री ने ग्रामीणों से कहा-यज्ञ भी होगा, अखण्ड भण्डारा भी होगा और कोई जेल भी नहीं जायेगा। ऐसा कहकर वे कमरे में बन्द हो गये। तीन दिनांे तक उसमें से निकले नही। उसी बीच सारी जनता का एक साथ मानस-परिवर्तन हुआ, जो पहले यज्ञ का विरोध कर रहे थे उनमें ही ऐसी उत्तेजना पैदा हुई कि वे अंग्रेजों के काले कानून का विरोध करने लगे और अपने-अपने स्थानों से घी, खंाड, बेसन, आटा आदि यज्ञ की सामग्री लेकर चल पड़े। उस समय प्रत्येक के मुख में एक ही वाक्य था- यज्ञ! यज्ञ! यज्ञ! महात्माओं के प्राणों की रक्षा को देखते हुए जन मानस के पटल पर आकर्षण हुआ, तथा देखते-देखते सामग्रियों का पहाड़ जैसा ढेर लग गया। तीन दिनों के बाद महाराजश्री जब कमरे से बाहर निकले तो नियुक्त आचार्य व ब्राह्मणों ने उनका पूजन किया और यज्ञ प्रारम्भ किया।
उस यज्ञ को देखने के लिए स्त्री, पुरुष, वृद्ध, बालक आदि सभी आये जिससे वहाँ अद्भुत जनसमुदाय एकत्र होकर अपूर्व मेले का प्रारूप तैय्यार हो गया। जिस दिन भण्डारा था उस दिन तीव्र वर्षा होने लगी। जहाँ भठ्ठी थी वहाँ महाराजश्री ने साधारण सा एक कपडा टंगवा दिया और स्वयं एक चैकी पर आसन बिछाकर समासीन हो गये। उस वर्षा में भी जिस कढ़ाई में पूडियाँ बन रही थी उसमें एक बून्द भी पानी नहीं आया पूडि़याँ अनवरत कड़ाही में से निकलती रही और लोग यज्ञ, भगवान् तथा महाराज श्री की जय-जयकार करते रहे। जहाँ कहीं भी पानी भर जाता था वहाँ-वहाँ सूखी मिट्टी से ऊँचा कर दिया जाता था। अन्तिम परिणाम यही निकला कि पूर्णाहुति के काल में सारे के सारे बादल हठ छोड़कर कहीं शून्य में विलीन हो गये जैसे ब्रह्मज्ञान होने पर सारे विवर्तों का अधिष्ठानभूत ब्रह्म में विलय हो जाता है। वर्षा रूक गयी। उस महायज्ञ में मुख्य अतिथि ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य अनन्तश्री विभूषित स्वामी कृष्णबोधाश्रमजी महाराज थे। स्वामी जी और महाराजश्री में दो शरीर एक आत्मा के रूप की अन्तरगंता थी ऐसा ही लोग परिभाषित करते थे। पूर्णाहुति के बाद भण्डारा प्रारम्भ हुआ। उसी स्थान पर महाराजश्री का आसन लगाने का आदेश हुआ जहाँ पर कोठार का सामान था। वहाँ पर एक दीप पहले से ही प्रज्वलित था। महाराजश्री अन्दर गये। करीब 10 मिनट तक कपाट बन्द किये रहे, पश्चात् बाहर निकल कर कोठार के द्वार के पास आसन लगा बैठे तथा एक ब्रह्मचारी को अन्दर खड़ा कर दिया, जो व्यक्ति कुछ लेता था वह बाहर से ही लेता था। ब्रह्मचारी अन्दर से देते रहे। यह क्रम रात्रि 12 बजे से अधिक समय तक चला।
तदनन्तर प्रत्येक जन प्रसाद लेकर जाने लगे तभी महाराजश्री ने कुछ क्षीर गम्भीर स्वर में कहा जिन लोगों ने इस यज्ञ में सहयोग किया वे रात यहीं विश्राम करके प्रातःकाल घर जायेंगे। सारे के सारे सहयोगी व्यक्ति उस गगनभेदी भारती को सुनकर ठहर गये। महाराजश्री ने आसन उठाने की आज्ञा दी। जहाँ पूर्णाहूति हुई थी वहीं पर पुनः आसन बिछाया गया। महाराजश्री घोर निद्रा में सो गये। सोने के पश्चात् ब्राह्ममुहूर्त में उठकर तथा नित्य क्रिया से निवृत होकर उँचे स्वर में पुनः उन्होंने कहा- “जो जितना कच्चा समान लाया था उतना ही पका हुआ ले जाय,” यही इस यज्ञ की सफलता का द्योतक है। बाद में पुनः कहा- “सुनो, मुरथलवासियों, चारों ओर लाल-लाल हो रहा है, आग लग रही है, जिसको जितना बाँधना हो बाँध लें”। उस समय मुरथल के आस-पास मिर्च पैदा होती थी। समझदार व्यापारियों ने आसाम आदि दूर-दूर से मिर्च खरीदकर सुरक्षित कर लिया। उसी काल के अनन्तर ही दो रूपये प्रति किलो बिकने वाली मिर्च दस रूपये प्रति किलो के भाव की हो गयी। उस समय के शताधिक मुरथल के वैश्य-परिवार आज उस वाणी के प्रभाव से ही इण्ड्रस्ट्रियों के मालिक हो गये हैं। सहस्त्रपति कोटिपति हो गये तथा लखपति, अरबपति हो गये। दिल्ली के वैश्य लोग इस बात को स्वयं अपनी वाणी से बखान करते नही थकते।
महाराज श्री के दिव्य चमत्कार – 3
स्वामी भूमानन्द जी तीर्थ एक दिव्य महापुरुष थ्¨, यह सिद्ध महात्मा आज भी उनके अनेक¨ं चमत्कार¨ं से उनके सहचर्य में रहने वाल्¨ भक्त¨ं अ©र महात्माअ¨ं के हृदय में एक देवता के भांति जीवनज्य¨ति बन जीवन क¨ आल¨कित कर रहें है।
एक बार धर्मसम्राट स्वामी करपात्र्ाी जी महाराज दिल्ली मेरठ का प्रवास कर हरिद्वार के पावन भूमि पर पधारे अ©र भूमा निकेतन में पूज्यगुरूदेव भगवान के अतिथि बने। गुरूदेव स्वामी करपात्र्ाी जी के विद्वत्ता का अत्यन्त सम्मान करते थ्¨ अ©र स्वामी करपात्र्ाी जी भी गुरूदेव के तपस्या क¨ आदर पूर्वक नमन करते थ्¨। श्रीमद्गीता या श्रीमöागवत या किसी भी अन्य धर्मग्रन्थ पर स्वामी करपात्र्ाी जी के ल्¨ख व प्रवचन आज भी छात्र्ा¨ं के लिये अध्ययन व शोध का विषय हैं। स्वामी करपात्र्ाी जी क¨ पूज्य गुरूदेव भगवान महादेव का दूसरा अवतार कहते थ्¨। द¨न¨ महात्माअ¨ं का ये अपूर्व स्नेह आजीवन रहा।
स्वामी करपात्र्ाी जी के घुटन¨ं मे क¨ई विकार आ गया था घुटने मुड कर इतने जकड गये थ्¨ कि स्वामी जी चलने में असर्मथ ह¨ गये थ्¨। स्वामी करपात्र्ाी जी के अनेक¨ं धनाढ्य भक्त जिनमे बिडला, धानुका, डालमिया परिवार प्रमुख थ्¨ उन्ह¨ने स्वामी जी के लिये पालकी की व्यवस्था कर रखी थी पर स्वामी जी के मन में यह लाचारी बहुत पीडा पहुंचा रही थी। स्वामी करपात्र्ाी जी ने भूमानिकेतन में प्रवास के समय यह पीडा गुरूदेव स्वामी श्री भूमानन्द जी से व्यक्त करते हुये कहा कि स्वामी जी आप त¨ जनसमुदाय के पीडा क¨ त्वरित हर ल्¨ने वाल्¨ चमत्कारी माने जाते हैं कुछ मेरे लिये भी चमत्कार कर द¨ कि मै चलने लगूं । स्वामी भूमानन्द जी ने अत्यन्त विनम्रता से कहा कि स्वामीवर्य आप जैसे विद्वान के सामने मैं कहां का चमत्कारी हूं! मुझे कुछ नहीं आता। ऐसा कह कर धर्मसम्राट क¨ ब्रह्मचारी की सहायता से स्वयं कक्ष में विश्राम करने के लिये ल्¨ गये। रात्र्ाि में सभी महात्माअ¨ं क¨ आश्रम की अ¨र से दुग्ध देने की व्यवस्था थी स¨ गुरूदेव स्वयं स्वामी करपात्र्ाी जी के लिये पात्र्ा में दूध ल्¨कर कक्ष में गये अ©र स्वामी जी से दूध पीकर विश्राम का आग्रह किया अ©र स्वामी जी के दुग्धपान करने के बाद अपने करकमल¨ं से धर्मसम्राट के चरण¨ं क¨ सहलाते रहे अ©र महाराज करपात्र्ाी जी के स¨ जाने पर अपने कक्ष में आकर विश्राम करने आ गये।
रात्र्ाि में स्वामी करपात्र्ाी जी की निद्रा भंग हुई त¨ ये लगा कि पैर ज¨ सीध्¨ नहीं ह¨ रहे थ्¨ सीध्¨ हैं अ©र बिना किसी पीडा के कार्य कर रहे हैं स्वामी जी क¨ लगा कि ये भ्रम है स¨ उन्ह¨ने चलकर अपने पैर¨ं क¨ परखा, कुछ देर तक पैर¨ क¨ तख्त से लटका कर बैठे रहे पुनः कुछ देर बाद दीवार के सहायता से चलकर शौचालय तक गये अ©र वापस आकर स¨ गये। प्रातः स्वयं चलकर गुरुदेव के कक्ष में गये अ©र गल्¨ से लगा कर कहा कि – स्वामी जी आप त¨ जैसा ल¨ग कहतें है उससे भी बढ कर चमत्कारी ह¨ देख¨ मै स्वयं अपने से चलकर आप के पास आया हूं ।
इस प्रकार गुरुदेव भगवान ने धर्मसम्राट के कष्ट का निवारण कर के धर्मजगत में अपने चमत्कार¨ं से प्रसिद्धी पाकर व¨ स्थान प्राप्त किया ज¨ किसी भी अन्य महात्मा के लिये केवल दिवास्वप्न ही ह¨ सकता है।
भूमा निकेतन से सम्बन्धित सभी संस्थाओं का उत्तरदायित्व बडे ओजस्वी, तेजस्वी एवं धार्मिक मूल्यो पर किसी प्रकार से समझौता न करने वाले परम गुरुभक्त, निष्ठावान, कर्तव्यनिष्ठ, नित्यवन्दनीय, प्रातः स्मरणीय अनन्तश्री विभूषित स्वामी अच्युतानन्द तीर्थ जी महाराज को कार्यभार सौंप कर, सन् 1986 में महाराजश्री जी हरिद्वार से विरक्त होकर काशी में रहने लगे और वहाँ पर कालभैरव, माँ अन्नपूर्णा एवं काशी विश्वनाथ की पूजा करते-करते सन् 1991 में निर्वाण लिया और मोक्ष को प्राप्त हो गये।