– श्री हरिः –
संसार में अहंकारियों के अहंकार दर्प को नष्ट करने वाले ईश्वर के अनेक अवतार है। जब-जब धर्म की हानि हुई है, तब-तब भगवान ने कोई न कोई रूप धर धर्म को पुनः बल प्रदान किया है। जैसे रावण का दर्पनाश करने हेतु श्री राम, कंस का हनन करने श्री कृष्ण, ब्रह्मा के अहंकार को नष्ट करने हेतु कालभैरव, दक्ष का घमण्ड चूर करने के लिए वीरभद्र आदि।
आगम ग्रन्थों में भैरव जी के अनेक वर्णन प्राप्त होते है।
असिता रूरूचण्डः क्रोध उन्मत्त संज्ञक।
कपालो भीषणश्चैव संहारश्चाष्टमः स्मृतः।।
कल्कि पुराण में भी भैरव का नाम आया है कि ये भगवान महारूद्र के प्रमुखगण हैै। ये उग्र संज्ञक देव कलिकाल में भी भक्तों के मनाकामनाओं को क्षिप्र पूर्ण कर देते है। स्कन्द पुराण मंे कालभैरव की उत्पत्ति का वर्णन विशद रूप से किया है।
ब्रह्मा के अंहकार को नष्ट करने के लिए ईश्वर ने अपने भृकुटि से भीषण रव करने वाले भैरव की सृष्टि कर ब्रह्मा के पंचम मुख का छेदन करने का आदेश दिया साथ ही भैरव को ब्रह्महत्या से मुक्ती प्राप्त करने के लिए तीर्थाटन का भी आदेश किया। काशी में प्रवेशोपरान्त श्री भैरव की ब्रह्महत्या निवृत्ति हुई जिस स्थान पर ब्रह्महत्या ने भैरव को मुक्त किया उसका नाम कपालमोचन पडा।
भैरव जी के आज्ञा पालन से सदाशिव इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने भैरव जी को काशी का प्रमुख कोतवाल भी बना दिया। आज भी भैरव पूजन किये बिना काशी वासियों के कष्ट का समापन नहीं होता है।
कालभैरव की स्तुति करते हुए सब कहते है-
“काशिकापुराधिनाथ कालभैरवं भजे” ;कालभैरवाष्टकद्ध
दश महाविद्याओं मेें जो भी देवी के दस स्वरूप है उनके साथ भवानी के पति भैरव रूप में संसार को त्राण देने का कार्य निरन्तर कर रहे है। प्रातः स्मरणीय गुरुदेव स्वामी भूमानन्द जी के पूर्व शरीर के कुलदेव भैरव जी ही थे और जब महाराजश्री ने दण्ड धारण किया तो भैरव भी साक्षात स्वामी जी के सामने उग्र भैरव रूप में प्रकट हो गये और आशीष मांगने को कहा परन्तु स्वामी जी ने उग्र भैरव के रूप में आराधना को स्वीकार न करते हुए श्री बटुक भैरव स्वर्णाकर्षण भैरव के यांत्रिक रूप में आशीष देने की प्रार्थना की। स्वामी जी का मांगने लेने-देने के व्यवहार से उत्कट वैराग्य हो गया था अस्तु गुरुदेव भगवान ने ईश्वर को प्राप्ति करने में सहाय होने को कहा और पथ प्रदर्शक बनने का निवेदन किया। कलयुग मंे भैरव उपासना छिप्र प्रसादन होने के कारण शीघ्र फलदायी है। स्वामी श्री भूमानन्द तीर्थ जी के महाप्रयाण तक एक विचित्रानुभूति सभी सहचारी भक्तजनों को होती थी कि जैसे कोई और भी स्वामी जी के साथ चल रहा है।
स्वामी जी के गुरुवर्य उडिया बाबा ने एक भैरव उपसना की विधि भी स्वामी जी को बतलाई थी जिसमें दीपदान की एक विशिष्ट विधि का वर्णन किया था जो एक दिवसीय, त्रीदिवसीय और सप्त दिवसीय विधान है, जिसमें 27 पल की बत्ती सूत की बनाकर दीप प्रज्जवलित करने का नियम है, जिसको करने के बाद स्वामी जी ने कभी किसी भी उत्सव, प्रसंग या समष्टी भण्डारे में पूर्णता के अलावा अपूर्णता/अभाव को महसूस नही किया।
स्वामीश्री भैरवोपासक है, ये बात साधु समाज में भी दावानल के समान फैली हुई थी। स्वामीश्री ने हिमाचल मंे रिवारसल नामक जगह मंे तिब्बतीयों पर दिग्विजय प्राप्त किया था। आज भी आश्रम के मुख्य पूजाकक्ष में स्वामीश्री के भैरव पूजा से उत्पन्न तरंगों को सहज ही महसूस किया जा सकता है।
प्रातः स्मरणीय गुरुदेव श्री भूमानन्द जी शंकराचार्य अद्वैत मत के अनन्य उपासक होते हुए भी सभी देवों का पूजन करते थे स्वामी जी का कहना था कि हम यदि पूजन नहीं करेंगे तो समाज में भ्रान्ति फैलेगी कि ये पूजन नही करते और अद्वैतवादी तो सोऽहं और कोऽहं के द्वन्द से भी मुक्त नित्य जगत का साक्षी होता है। इसलिए समाज को सही दिशा मिले इसका प्रयास स्वामी जी अपने आचरण में सतत करते थे और इसीलिए शिवोपासना, भैरवोपासना, ब्रह्मणसत्कार आदि सभी वैदिक विधियों का आजीवन पालन किया और आश्रम के सभी सुधियों के करने का प्रेरक बने।
श्री श्री 1008 पुण्य श्लोक अनन्त स्वामी भूमानन्द जी के एक मात्र हृदयांश जो उनके ही पदचिन्हों पर चलकर स्वामी भूमानन्द जी के नाम को दिगन्तों में गुन्जयमान कर रहे है, वाद-विवाद से परे संसार का कल्याण ही जिनका लक्ष्य होकर राष्ट्र हित और मानव हित के राष्ट्रवादी विचारों से ओत-प्रोत पुण्य स्वामी श्री अच्युतानन्द तीर्थ जी महाराज चाहे कोई भी परिस्थिति हो गुरु आदेश का पालन किये बिना जल नही ग्रहण करते।
हम सबको ऐसे महाविभूतियों के चरणरज से जितना भी संभव हो रज को लेकर अपना जीवन संवर जाये ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए।